विष परिचय
(Introduction of poison)
विष व्युत्पत्ति -
विष = 'विष्' + क, विष शब्द 'विष' धातु में 'क' प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है फैलना या व्याप्त होना, अर्थात् जो द्रव्य शरीर में शीघ्रता से फैलता है, उस द्रव्य को विष कहते हैं।
विष निरूक्ति -
विषमुच्यते विषादनाद् हेतोः।
जो द्रव्य विषाद उत्पन्न कर देता है, उसे विष कहते हैं।
विष परिभाषा -
जगद्विषणं तं दृष्टवा तेनासौ विष संज्ञितः। (च. चि. 23/5)
जो द्रव्य सम्पूर्ण विश्व मे विषग्णता (विषादता) उत्पन्न करे उसे विष कहते हैं।
www.youtube.com/bamsstudies
विष की उत्पत्ति -
अमृतार्थं समुद्रे तु मथ्यमाने सुरासुरैः।
........ तदम्बुसम्भवं तस्माद्दिवविधं पावकोपमम।
(च.चि. 23/4-6)
अमृत को प्राप्त करने के लिए, जब देव व दानव समुद्र मंथन कर रहे थे, तब एक कुरूप पुरुष अवतरित हुआ । उसका चेहरा तेज़ था, चार बड़े बड़े दाँत थे, उसके बाल हरे थे और आंखों से आग की ज्वाला निकल रही थी। विश्व उसको देखकर विषण्ण हो गया। तब भगवान ब्रह्मा को विश्व का ये दुख देखा नहीं गया और इसलिए उसने उसको जङ्गम और स्थावर विषों मे विभाजित कर दिया।
**विष के गुण (Properties of Poison)-
लघु रुक्षमाशुविशदं व्यवायि तीक्ष्ण विकाशि सूक्ष्मं च।
उष्णमनिर्देश्यरसं दशगुणयुक्तं विषं तज्ज्ञैः।।
(च. चि. 23/24)
लघु, रुक्ष, आशु, विशद, व्यवायि, तीक्ष्ण, विकाशी, सूक्ष्म, उष्ण, अनिर्देश्य रस ये 10 गुण विष के है।
दस गुणों से युक्त विष सबसे घातक होता है।
www.youtube.com/bamsstudies
विष के गुण एवं कर्म-
1. रुक्ष - वायु प्रकोप
2. लघु - चिकित्सा मे कठिनाई
3. आशु - शीघ्र प्रसार
4. विशद - दोषो की गति सुस्थिर नहीं होती
5. व्यवायि - विष पाचन के बिना ही शरीर मे फैलता है
6. तीक्ष्ण - हृदय आदि मर्म बंधनो को नष्ट करता है
7. विकाशी - प्राणघ्न
8. सूक्ष्म - रक्त प्रकोप
9. उष्ण - पित प्रकोप
10. अनिर्देश्य - कफ प्रकोप
www.youtube.com/bamsstudies
मद्य और ओज के गुण-
ओज -
गुरु शीतं मृदु श्लक्ष्णं बहलं मधुरं स्थिर।
प्रसन्नं पिच्छिलं स्निग्धमोजो दशगुणं स्मृतम् ।।
गुरुत्वं........................ जनयेन्मदम्।।
(च. चि. 24/31-34)
मद्य और विष के समान गुण होते हैं, इसलिए मद्य शरीर मे प्रवेश करने के बाद ओज के दश विपरीत गुणों को प्रभावित करता है।
ओज के गुण-
1. गुरु
2. शीत
3. मृदु
4. बहल (सान्द्र)
5. स्थिर
6. प्रसन्नं (प्रसाद)
7. स्निग्ध
8. श्लक्ष्ण
9. पिच्छिल
10.मधुर
विष प्राणहर क्रिया -
क्षति विषतेजसाऽसृक् तत् खानि निरुध्य मारयति जन्तुम्।
पीतं मृतस्य हृदि तिष्ठति दष्टविद्धयोर्दंशदेशे स्यात् ।।
(च. चि. 23/22)
विष के तीक्ष्ण स्वभाव से रक्त का क्षरण होता है, जिससे रुग्ण की मृत्यु होती है।
मुख मार्ग से प्रविष्ठ हुआ विष हृदय मे एवं द्रष्टा से प्रविष्ठ हुआ विष दंश स्थान में संचित रहता है।
विषसंकट-
विषप्रकृतिकालान्नदोषदूष्यादिसङ्गमे।
विषसंकटमुद्दिष्टं शतस्यै कोऽत्र जीवति।।
विष की प्रकृति, काल, अन्न, दोष, दूष्य सभी समान होने पर एक साथ मिलें, तो विष संकट की स्थिति कहलाती है ।
इस स्थिति में कोई भी जीवित नहीं बचता ।
विष वृद्धि के कारण-
विरुद्धाध्यशनक्रोधक्षुद्धयायासमैथुनम्।
वर्जयेद् विषमुक्तोऽपि दिवास्वप्नं विशेष च।।
(च. चि. 23/227)
आचार्य चरक के अनुसार विरुद्धान्न, अध्यासन, क्रोध, क्षुधा, व्यवाय, दिवास्वप्न आदि से विषाक्तता अधिक होती है।
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YouTube channel
www.youtube.com/bamsstudies
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(Introduction of poison)
विष व्युत्पत्ति -
विष = 'विष्' + क, विष शब्द 'विष' धातु में 'क' प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है फैलना या व्याप्त होना, अर्थात् जो द्रव्य शरीर में शीघ्रता से फैलता है, उस द्रव्य को विष कहते हैं।
विष निरूक्ति -
विषमुच्यते विषादनाद् हेतोः।
जो द्रव्य विषाद उत्पन्न कर देता है, उसे विष कहते हैं।
विष परिभाषा -
जगद्विषणं तं दृष्टवा तेनासौ विष संज्ञितः। (च. चि. 23/5)
जो द्रव्य सम्पूर्ण विश्व मे विषग्णता (विषादता) उत्पन्न करे उसे विष कहते हैं।
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विष की उत्पत्ति -
अमृतार्थं समुद्रे तु मथ्यमाने सुरासुरैः।
........ तदम्बुसम्भवं तस्माद्दिवविधं पावकोपमम।
(च.चि. 23/4-6)
अमृत को प्राप्त करने के लिए, जब देव व दानव समुद्र मंथन कर रहे थे, तब एक कुरूप पुरुष अवतरित हुआ । उसका चेहरा तेज़ था, चार बड़े बड़े दाँत थे, उसके बाल हरे थे और आंखों से आग की ज्वाला निकल रही थी। विश्व उसको देखकर विषण्ण हो गया। तब भगवान ब्रह्मा को विश्व का ये दुख देखा नहीं गया और इसलिए उसने उसको जङ्गम और स्थावर विषों मे विभाजित कर दिया।
**विष के गुण (Properties of Poison)-
लघु रुक्षमाशुविशदं व्यवायि तीक्ष्ण विकाशि सूक्ष्मं च।
उष्णमनिर्देश्यरसं दशगुणयुक्तं विषं तज्ज्ञैः।।
(च. चि. 23/24)
लघु, रुक्ष, आशु, विशद, व्यवायि, तीक्ष्ण, विकाशी, सूक्ष्म, उष्ण, अनिर्देश्य रस ये 10 गुण विष के है।
दस गुणों से युक्त विष सबसे घातक होता है।
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विष के गुण एवं कर्म-
1. रुक्ष - वायु प्रकोप
2. लघु - चिकित्सा मे कठिनाई
3. आशु - शीघ्र प्रसार
4. विशद - दोषो की गति सुस्थिर नहीं होती
5. व्यवायि - विष पाचन के बिना ही शरीर मे फैलता है
6. तीक्ष्ण - हृदय आदि मर्म बंधनो को नष्ट करता है
7. विकाशी - प्राणघ्न
8. सूक्ष्म - रक्त प्रकोप
9. उष्ण - पित प्रकोप
10. अनिर्देश्य - कफ प्रकोप
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मद्य और ओज के गुण-
ओज -
गुरु शीतं मृदु श्लक्ष्णं बहलं मधुरं स्थिर।
प्रसन्नं पिच्छिलं स्निग्धमोजो दशगुणं स्मृतम् ।।
गुरुत्वं........................ जनयेन्मदम्।।
(च. चि. 24/31-34)
मद्य और विष के समान गुण होते हैं, इसलिए मद्य शरीर मे प्रवेश करने के बाद ओज के दश विपरीत गुणों को प्रभावित करता है।
ओज के गुण-
1. गुरु
2. शीत
3. मृदु
4. बहल (सान्द्र)
5. स्थिर
6. प्रसन्नं (प्रसाद)
7. स्निग्ध
8. श्लक्ष्ण
9. पिच्छिल
10.मधुर
विष प्राणहर क्रिया -
क्षति विषतेजसाऽसृक् तत् खानि निरुध्य मारयति जन्तुम्।
पीतं मृतस्य हृदि तिष्ठति दष्टविद्धयोर्दंशदेशे स्यात् ।।
(च. चि. 23/22)
विष के तीक्ष्ण स्वभाव से रक्त का क्षरण होता है, जिससे रुग्ण की मृत्यु होती है।
मुख मार्ग से प्रविष्ठ हुआ विष हृदय मे एवं द्रष्टा से प्रविष्ठ हुआ विष दंश स्थान में संचित रहता है।
विषसंकट-
विषप्रकृतिकालान्नदोषदूष्यादिसङ्गमे।
विषसंकटमुद्दिष्टं शतस्यै कोऽत्र जीवति।।
विष की प्रकृति, काल, अन्न, दोष, दूष्य सभी समान होने पर एक साथ मिलें, तो विष संकट की स्थिति कहलाती है ।
इस स्थिति में कोई भी जीवित नहीं बचता ।
विष वृद्धि के कारण-
विरुद्धाध्यशनक्रोधक्षुद्धयायासमैथुनम्।
वर्जयेद् विषमुक्तोऽपि दिवास्वप्नं विशेष च।।
(च. चि. 23/227)
आचार्य चरक के अनुसार विरुद्धान्न, अध्यासन, क्रोध, क्षुधा, व्यवाय, दिवास्वप्न आदि से विषाक्तता अधिक होती है।
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