Wednesday, March 27, 2019

रसशास्त्र का इतिहास

रस शब्द की निरुक्ति-
रसनात् सर्वधातुनां रसः इत्यभिधीयते।
(र. र. स. 1/75)
पारद को स्वर्ण, रजत आदि सभी धातुओं को खा जाने से रस कहते हैं।
जरारुङ्मृत्युनाशाय रस्यते वा रसो मतः।
(र. र. स. 1/76)
पारद का सेवन करने पर रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु का नाश होने से इसे रस कहते हैं।


रस शास्त्र का इतिहास

जिस प्रकार आयुर्वेद की संहिताओं मे ब्रह्मा को आयुर्वेद का प्रथम उपदेष्टा माना है। उसी प्रकार रस ग्रन्थों मे भगवान शिव (रुद्र) को रस विद्या का प्रथम उपदेष्टा माना है।
वैदिक काल में मुख्य रूप से काष्ठौषधियों का प्रचलन था, साथ ही रसशास्त्र का स्वरूप भी उसी काल से आरंभ होता है, क्योंकि वेदो मे चतुर्विध चिकित्सा - यथा आथर्वणी, आंगिरसी, दैवी, और मनुष्यजा का वर्णन मिलता है।



मन्त्र तन्त्र

सिद्धि प्राप्त करने के मन्त्र और तन्त्र दो साधन हैं।
मन्त्र सिद्ध करने के लिए स्त्री - मद्य - मांस का त्याग, मिताहारी तथा मनसा-वाचा-कर्मणा पवित्र रहना अनिवार्य है।
तन्त्र - तन्त्र शब्द चरक संहिता मे आयुर्वेद - विद्या- शाखा - सुत्रादि शब्दो के पर्याय के रूप मे माना गया है। तन्त्र का अर्थ नियमन या नियंत्रण माना है।
कुलमार्ग या कौलशास्त्र : जिस शास्त्र में कुल (पार्वती) और अकुल (शिव) के साथ संबंध स्थापित किया जाये उसे कुलमार्ग या कौलशास्त्र कहते हैं।
इनका मानना है कि कौलों को पञ्चमकार यथा- मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन के सेवन से सहज ही मोक्ष हो जाता है।


देहसिद्धि - लौहसिद्धि:

  • रसेश्वर दर्शन मे पारद और अभ्रक के संयोग से शरीर को सिद्ध करने का उल्लेख है।
  • पारद का सम्बन्ध शिव तथा अभ्रक का पार्वती से माना गया है।
  • पारद और अभ्रक के संयोग से सृष्टि में जन्म सिद्धि मिलती है।
  • शिव के शरीर का रस पारद ही सिद्ध होकर शरीर को अजर-अमर बना देता है। पारद की सिद्धि की परीक्षा धातु सिद्धि से की जाती है।
  • पारद के द्वारा शरीर को स्थिर करके अजरामर बनाना ही देहवेध था तथा निकृष्ट धातुओं को उत्कृष्ट धातुओं मे परिणत करना ही लोहवेध था। 

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